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Story
of the Month ”जब मैं बच्चा
था तो छोटी-छोटी
चीज़ों से अपने
खिलौने बनाने
और अपनी कल्पना
में नए-नए खेल ईजाद
करने की मुझे पूरी
आज़ादी थी। मेरी
खुशी में मेरे
साथियों का
पूरा हिस्सा होता
था; बल्कि मेरे
खेलों का पूरा
मज़ा उनके साथ
खेलने पर निर्भर
करता था। एक दिन
हमारे बचपन के
इस स्वर्ग में
वयस्कों की बाज़ार-प्रधान
दुनिया से एक प्रलोभन
ने प्रवेश किया।
एक अंग्रेज़ दुकान
से खरीदा गया
खिलौना हमारे
एक साथी को दिया
गया; वह कमाल
का खिलौना था, बड़ा और मानो
सजीव। हमारे साथी
को उस खिलौने पर
घमंड हो गया और
अब उसका ध्यान
हमारे खेलों में
इतना नहीं लगता
था; वह उस कीमती
चीज़ को बहुत ध्यान
से हमारी पहुँच
से दूर रखता था,
अपनी इस खास
वस्तु पर इठलाता
हुआ। वह अपने अन्य
साथियों से
खुद को श्रेष्ठ
समझता था क्योंकि
उनके खिलौने सस्ते
थे। मैं निश्चित
तौर पर कह सकता
हूँ कि अगर वह इतिहास
की आधुनिक भाषा
का प्रयोग कर सकता
तो वह यही कहता
कि वह हास्यास्पद
रूप से उस श्रेष्ठ
खिलौने का स्वामी
होने की हद तक हमसे अधिक
सभ्य था। अपनी
उत्तेजना में
वह एक चीज़ भूल
गया कृ वह
तथ्य जो उस वक्त
उसे बहुत मामूली
लगा था, कि इस
प्रलोभन में एक
ऐसी चीज़ खो गई
जो उसके खिलौने
से कहीं श्रेष्ठ
थी, एक श्रेष्ठ
और पूर्ण बच्चा।
उस खिलौने से महज
उसका धन व्यक्त
होता था, बच्चे
की रचनात्मक ऊर्जा
नहीं, न ही उसके
खेल में बच्चे
का आनंद था और न
ही उसके खेल की
दुनिया में साथियों को
खुला निमंत्रण।’’ रवीन्द्रनाथ
टैगोर के निबंध
‘सभ्यता और प्रगति’
से |